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शुक्रवार, 18 अप्रैल 2008

नवागत

साइकिल यक-ब-यक चिचियाकर खड़ी हो गई. उसने बार-बार पैडल घुमाने की कोशिश की पर सारी मेहनत बेकार गई. तब वह कैरियर पकड़ कर पिछला पहिया उठाये आगे वाली दुकान की ओर बढ़ गया ,जहाँ साइकिलों की मरम्मत होती थी. वहाँ पहुँच कर उसने साइकिल पटक दी.
“ देखो भाई, इसमें क्या गड़बडी हो गई है.” उसने मरम्मत करने वाले से कहा.
दुकान पर और भी कुछ सीधी, कुछ उल्टी साइकिलें खड़ी थी. अकेला बूढा मिस्त्री, बैठा हुआ एक रिम सीधी कर रहा था. वह रिम को नचाता, उंगली से मिलान करता और तीलियों को कसता या ढीला करता जाता.
“ थोड़ी देर लगेगी, बाबूजी.” मिस्त्री ने तीली कसते हुए कहा.
‘उफ !’ कहकर वह पास रखे एक मैले से स्टूल पर धूल पोंछकर बैठ गया. पसीना पोंछकर वह बेचैनी से नाचती हुई रिम को देखने लगा. कलाई पर घड़ी की सूइयाँ तेजी से बढ़ रही थी.
‘ कंगाली में आटा गीला ’- वह सोच रहा था... उधार के पैसों में भी अब सिर्फ़ दस रुपये बचे हैं. तीन-चार दिन अचार आदि से काम चलाने के बाद आज वह सब्जी खरीदने निकला था. अब पता नहीं साइकिल में कितना खर्च हो जाए...चाहे जो हो जाए, अब और उधार नहीं लूंगा. देखूं पिताजी कब तक पैसा भेजतें हैं... उन्होंने भी हद कर दी है. कितनी बार चिट्ठियों में लिख चुका की २५ जून से परीक्षा शुरू हो जायेगी. गर्मी की छुट्टी में घर नहीं आ पाउँगा. समय से पैसा भेज दीजियेगा, इसकी चिंता हो तो पढ़ाई नहीं हो पाती. मकान-मालिक से रोज- रोज की खटपट में क्या कोई खाक पढेगा. इसके बाद रिजल्ट भी अच्छा चाहिए. लिखते हैं- बेटा, बड़े अरमान से तुम्हें इतनी दूर पढ़ने को भेजा है. खूब मेहनत करना. परिवार का नाम रौशन करना...ऐसे ही चलता रहा तो खूब नाम रौशन होगा. यूनिवर्सिटी में हॉस्टल मिलना नहीं है. इलाहाबाद की भयानक गर्मी में जीना वैसे ही मुश्किल है. ऊपर से लॉज में आये दिन बिजली-पानी की किल्लत, शोर-शराबा और झगड़ा-फसाद. सुबह-शाम का चौका-बर्तन और बदले में जला-गीला-कच्चा भोजन. अभी तो रोटियां भी सेंकने नहीं आती... यह ख्याल आते ही उसकी जली हुई अंगुलियों का दर्द उभर आया, फ़िर माँ की याद आ गई. कितने प्यार से मना-मनाकर खाना खिलाती थी. छोटी सी नाराजगी में खाना छोड़ देते. फ़िर माँ के हाथ से खा लेते. यहाँ तो थोड़ा आलस्य करें तो भूखा ही सोना पड़े.

मिस्त्री उसके साइकिल की जांच करने लगा. उसके अन्दर एक डर सा समां गया. कहीं कोई बड़ा खर्चा न पड़ जाय. उसका हाथ अपने आप जेब में पड़ी दस रुपये की नोट के ऊपर चला गया. मन ही मन सोचने लगा कि देखें सब्जी भर का पैसा बचता है कि नहीं. मिस्त्री ने रिंच उठाया, पिछली पहिया का नट ढीला किया और टायर को एक तरफ़ दबाकर नट को फ़िर से कस दिया. पहिया नाचने लगा. "ले जाओ बाबूजी, गाड़ी ठीक है". कितना हुआ? जो चाहे दे दो बाबूजी, काम तो देख लिया". दस का फूटकर है क्या ? मेरे पास चेंज नही है. बूढे ने कुटिलता से मुस्कराकर देखा और बोला-"ठीक है, फ़िर कभी दे देना."

उसका चेहरा तो शर्म से लाल हो गया लेकिन मन को बड़ा संतोष मिला. फ़िर साइकिल पर बैठा तो चेहरे पर मुस्कान खिल उठी थी. अब उसे सब्जी मिल जायेगी.

2 टिप्‍पणियां:

  1. यह कहानी अलग अलग रुपों में बहुतों का यथार्थ है. अच्छा लिखा है.

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  2. घर से दूर टिक कर पढने वालों के साथ अक्सर ऐसी घटनाऐं हो ही जाती हैं।

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