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गुरुवार, 17 अप्रैल 2008

मौन क्यों तू?

ब्लॉगर मित्रों,
लीजिये, आज उस कुत्ते की कहानी फ़िर बताने का मन कर रहा है जिसके बारे में मैंने तेरह साल पहले एक ‘आंखों देखा हाल’ लिखा था। दरअसल हाल ही में मुझे एक मित्र ने एक विचित्र रहस्य की बात बताई है। इलाहाबाद के छात्रावास में रहते हुए जब मैंने यह आइटम लिखा था तो दीवार-पत्रिका पर लगाते वक्त मैंने कत्तई नहीं सोचा था कि एक सचमुच के कुत्ते पर ईमानदारी से लिखी गई यह कहानी मेरे पड़ोसी अन्तःवासी को इतनी अखर जायेगी कि वो मरने - मारने पर उतारू हो जाएगा। मुझे अब पता चला है कि उस मूर्ख ने ख़ुद को इस कहानी का लक्षित मुख्य पात्र समझ लिया था और मुझे सबक सिखाने कि फिराक में रहने लगा था। अब सौभाग्य से उसके निशाने से बच ही निकला हूँ तो इस कहानी को हूबहू दुबारा पेश करता हूँ। इस उम्मीद में कि कोई यह बतायेगा कि मुझसे लिखने में गलती कहाँ हुई थी...।


मौन क्यों तू ?
कुत्ता भी अजीब जानवर होता है। इसका व्यक्तित्व भी अजीब है। आप पूछेंगे कुत्ते में भी व्यक्तित्व हो सकता है क्या? अजी जनाब ,व्यक्तित्व केवल आदमी में थोड़े ही होता है जानवर में भी हो सकता है ( हाँ ,कुत्ते के मामले में यदि कोई भाषाई रूढिवादी चाहे तो इसे कुत्त्रित्व कह ले) आखिर व्यक्ति भी तो जानवर ही है। ऐसा जानवर जो सबसे बुद्धिमान है और संभवतः इसीलिए सबसे खतरनाक भी .लेकिन मैं यहाँ कुत्ते कि बात कर रहा हूँ ,जिसका व्यक्तित्व होता है और उसमे विविधता भी होती है। यहाँ मैं ऐसे कुत्ते कि बात करने वाला हूँ जिसका व्यक्तित्व ऐसा है, जो किसी दूसरे कुत्ते में नहीं दिखा।

यह किसी बड़ी हवेली के ऊँचे दरवाजे पर बंधा 'बब्बर' नहीं है जो अन्दर हो रहे हर कृत्य से बेखबर होता है; जिसकी नजर बाहर से आने वाली हस्तियों और अन्दर से आने वाली हड्डियों पर लगी रहती है। वह 'अन्दर जाने लायक' लोगों को पहचानता है। यह कुत्ता झबरे सफ़ेद बालों वाला 'बाबी' भी नहीं है, जो नर्म मुलायम गोद में बैठकर कार की खिड़की से झांकता हुआ शाम के वक्त अपने लिए बिस्कुट और शैम्पू वगैरह खरीदवाने या छींक की दवा कराने निकलता है।

यह शहर का आवारा कुत्ता भी नहीं है जो सड़कों पर अपनी बिरादरी के साथ बात-बात पर 'झौंझौं' करता है और चाय-पानी व चाट की दुकान पर मंडराते हुए जूठे पत्तलों की ताक में रहता है। उसकी स्पर्धा तो मैले -कुचैले कपड़ों में लिपटे छोटे-छोटे अनाथ बच्चों व बूढ़ी औरतो से रहती है; जो कटोरा लिए या हाथ फैलाये ऐसी जगहों के चक्कर लगाती हैं। यह कुत्ता ऐसा नहीं है। गाँव में भी मैंने ऐसा कुत्ता नही देखा। वहाँ तो कुत्ते अपना इलाका बाँट लेते हैं, और शहरी शोहदों की तरह अपने-अपने इलाके के बादशाह बने फिरते हैं। ये अपने इलाके के भीतर तो पूँछ उठाये, शान मे इतरा कर उछल-उछल कर चलते हैं; लेकिन दुर्योग से अगर दूसरे इलाके में जाना हुआ तो कान गिरा कर जमीन सूंघते हुए चलते हैं। थोड़ी-थोड़ी दूर पर टांग उठा कर ये कुछ ऐसी निशानी छोड़ते चलते हैं, जो संभवतः इन्हे वापस लौटने में मदद करती है। खतरा भाँपते ही इनकी पूँछ सीधी होकर जाने क्यों दोनों टांगो के भीतर जा समाती है?

गावों में कुछ रईसजादे कुत्ते भी होते है। 'कुत्ता-समाज' में इनकी बड़ी धाक होती है। अपने मालिक के घर से इन्हें नियमित भोजन मिल जाता है, इसलिए स्वास्थ्य अच्छा रहता है। इन कुत्तों के इर्द-गिर्द कुछ दुबले-पतले मरियल कुत्ते पूँछ हिलाते रहते हैं। इनकी दशा धाकड़ नेताओं के चमचों की तरह होती है। ये अपने मुखिया की खुराक से बचे जूठन पर ही अपना पेट पालते हैं। असल में, जब से गाँव में पक्के मकान और मजबूत दरवाजे बनने लगे हैं तबसे चोरी से रसोई में घुसकर रोटियां चुराना मुश्किल हो चला है। इसी वजह से अब चमचों को सुविधा-सम्पन्न कुत्तो की दया पर जीना पड़ता है।

कुत्तों के एक समाज शास्त्री ने पता नहीं किस अध्ययन के आधार पर मुझे बताया था की धीरे-धीरे ग्रामीण कुत्तों का शहर की ओर पलायन होता जा रहा है। उन्होंने शायद आदमियों की इस प्रवृत्ति को कुत्तों पर लागू कर दिया था। मुझे पहले तो यह बात खटकी थी; लेकिन अब विश्वास करने का मन हो रहा है इसकी वजह वही कुत्ता है जिसके व्यक्तित्व की चर्चा मैं करना चाहता हूँ।

इसका व्यक्तित्व बड़ा रहस्यमय है। जैसे कोई देहाती नया-नया शहर में आया हो। अनजानी, अनदेखी, एक ऐसी दुनिया में जहाँ उसका कोई परिचय नहीं। लेकिन वहीं पर रहने और जीविकोपार्जन की मजबूरी हो; या, जैसे कोई मज़नू अपनी लैला की अन्यत्र शादी हो जाने पर उसका ग़म भुलाने की गरज से बहुत दूर किसी अनजाने शहर में चला आया हो, लेकिन उसकी याद मिटती न हो। मन खोया-खोया रहे। यह कुत्ता जब चलता है तो पैर कहाँ पड़ रहे हैं, इसे शायद इसका पता ही नहीं रहता है। इतना शऊर भी नहीं कि दो-चार मित्र ही बना ले। कुछ हँसी-खेल ही हुआ करे। बिल्कुल अकेला रहता है। देखते-देखते कार्तिक का महीना भी निकल गया। बेअसर। योगी की तरह काट दिया।

यह छात्रावास के लंबे से बरामदे में रहता है। हर कमरे से कुछ न कुछ ऐसा जरूर फेंका जाता है जिसे चाटकर वह जी लेता है। बाहर की सड़क पर कम ही निकलता है। अन्तःवासियों की ही तरह स्वाध्याय में लीन रहता है। बाकी कुत्तों से भी दोस्ती नहीं है जैसे बिरादरी ने हुक्का-पानी बंद कर रखा हो। शरीर का ढांचा तो अच्छा है, लेकिन भोजन का कोई मुकम्मल इंतजाम न होने से शरीर सूख सी गई है। सफ़ेद और जामुनी छापों वाली चमड़ी किसी 'खानदानी' प्रजाति का परिचय तो देती है; लेकिन जब से यहाँ आया है, उसके बारे में लोगों की धारणा लगातार बदलती जा रही है।

यह जब आया था तो दुत्कारने पर आम कुत्तों की तरह भागता नही था बल्कि दुत्कारने वाले को पलट कर देखने लगता था। लोगों ने समझा पागल है। कुछ लोग मारने दौड़े तो इसने पागल जैसा कुछ भी नहीं किया। न भगा, न दांत निपोरे, न भौंका और न ही हमला किया। सबको विस्मय हुआ। किसी ने उसे 'विचित्र' कहा, किसी ने 'खतरनाक' तो एक सज्जन ने उसे 'चूतिया' तक कह डाला। किसी ने गाली दी- "स्साला! कुत्ता ही नहीं है!" मतैक्य नहीं रहा। मैंने समझा शायद मंद बुद्धि का होगा, क्योंकि कुत्ते जैसी चालाकी उसमें नहीं थी। लेकिन जल्दी ही पता चला कि भोजन का जुगाड़ वह भी चालाकी से ही करता है। फिर कुत्तों कि बिरादरी से अपना दामन बचा कर रखना भी कम चालाकी है क्या? फिर यह है क्या?


वाह रे कुदरत का खेल! कितने आदमियों को कुत्ता बना डाला लेकिन एक कुत्ता, कुत्ता नहीं रह पाया. फिर मैंने सोचा, शायद कोई गहरी चोट खाया है। चोट खाकर आदमी दार्शनिक हो जाता है। ...लेकिन यह तो कुत्ता है? ...तो क्या हुआ? ...यदि आदमी कुत्तों जैसा व्यवहार कर सकता है तो कुत्ता आदमी जैसा क्यों नहीं? इसे कुत्तों की दुनिया से ऊब सी हो गई है। जैसे कभी-कभी आदमी को अपनी दुनिया से हो जाती है। अकेला बरामदे में बैठा रहता है। दूसरे कुत्तों या कुतियों को देखकर मुंह फेर लेता है।

इसने शायद मौन व्रत ले रखा है। जाने किससे नाराज है? अब यह कुत्तों से नहीं, आदमियों से नजरें मिलाता है। बगल से गुजरिये तो आँखों में घूरेगा, पार कर जाइये तो पीछे से घूरेगा. ...तब तक घूरेगा जब तक आँखों से ओझल न हो जाइये। जाने क्या जानना चाहता है? इसे क्या पता कि आदमी को पहचानना आदमी के लिए ही मुश्किल है। फिर कुत्ते की क्या बिसात? मुझे इस निरीह प्राणी से सहानुभूति होने लगी है। जाने कैसा दर्द है? किससे शिकायत है? किसका वियोग है? कैसे पता करूं? इसने तो मौन धारण कर रखा है। वैसे यह बोले भी तो कौन समझेगा? एक दार्शनिक कुत्ते का मर्म कौन समझ पायेगा?

फिर सोचता हूँ, कहीं ऐसा तो नहीं कि इसकी दृष्टि सभी आदमियों के मन के भीतर तक पहुँच रही है? सबके अन्दर छिपे जानवर को यह देख रहा है? इसीलिए भयभीत है, और चुप भी?

5 टिप्‍पणियां:

  1. आपका हार्दिक स्‍वागत है।

    आपकी निरंतरता से इलाहाबाद का एक और नाम ब्‍लॉगमंच पर जगमगायेगा।

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  2. सिद्धार्थ जी, ब्लॉगिंग की दुनिया में स्वागत है। मेरी भी पढ़ाई-लिखाई इविवि में हुई है। एएन झा छात्रावास में रहा करता था। आपके कुत्ते की कहानी पर उपनिषद काल की एक कहानी पेश है...
    कुत्ते का ब्रह्म-ज्ञान

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  3. शुभकामनाओं के साथ स्वागत है आपका यहां

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  4. स्वागत है, आईये!! नियमित लेखन के लिये शुभकामनाऐं.

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  5. आप सभी को मेरे उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद. घूमते टहलते इस गली में भी आते रहिये. कुछ न कुछ मिल जाए इसकी कोशिश करता रहूँगा.

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